Sunday, 23 December 2012

चीरहरण करती है दिल्ली


यमुना में 
गर चुल्लू भर 
पानी हो दिल्ली डूब मरो ।
स्याह ... चाँदनी चौक हो गया 
नादिरशाहो तनिक डरो ।

नहीं राजधानी के 
लायक 
चीरहरण करती है दिल्ली,
भारत माँ 
की छवि दुनिया में 
शर्मसार करती है दिल्ली,
संविधान की 
क़समें 
खाने वालो, कुछ तो अब सुधरो ।

तालिबान में,
तुझमें क्या है 
फ़र्क सोचकर हमें बताओ,
जो भी 
गुनहगार हैं उनको 
फाँसी के तख़्ते तक लाओ,
दुनिया को 
क्या मुँह 
दिखलाओगे नामर्दो शर्म करो ।

क्राँति करो 
अब अत्याचारी 
महलों की दीवार ढहा दो,
कठपुतली 
परधान देश का 
उसको मौला राह दिखा दो,
भ्रष्टाचारी 
हाक़िम दिन भर 
गाल बजाते उन्हें धरो ।

गोरख पांडेय का 
अनुयायी 
चुप क्यों है मजनू का टीला,
आसमान की 
झुकी निगाहें 
हुआ शर्म से चेहरा पीला,
इस समाज 
का चेहरा बदलो 
नुक्कड़ नाटक बन्द करो ।

गद्दी का 
गुनाह है इतना 
उस पर बैठी बूढी अम्मा,
दु:शासन हो 
गया प्रशासन 
पुलिस-तन्त्र हो गया निकम्मा ,
कुर्सी 
बची रहेगी केवल 
इटली का गुणगान करो ।
जयकृष्ण राय तुषार


Friday, 21 December 2012

मकसद-ए-हयात


भटकता रहा मैं इस हयात में
हर पल एक खुशी की तलाश में
साधक बना विकट कामना थी मेरी
कोई दुखी न रहे अपने हयात में
चुभा कांटा निकाला था बच्‍चे का एक दिन
बेशुमार खुशियां आयी थी अपने हयात में
रोते एक शख्‍स को हंसा दिया था एक दिन
जश्‍न मनाया इतनी खुशियां मिली हयात में
गम खत्‍म बेजारों का गर कर सकूं
जीने का मकसद मिल जाए इस हयात में

राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्‍यू बरगंड़ा
गिरिडीह, झारखंड़ 815301



आगे पढ़ें: रचनाकार: राजीव आनंद की कविताएँ http://www.rachanakar.org/2012/12/blog-post_8987.html#ixzz2FiBnZHAb

बचा पाया हूँ


थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ।
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूँ।
मैंने सिर्फ़ उसूलों के बारे में सोचा भर था,
कितनी मुश्किल से मैं अपनी जान बचा पाया हूँ।
कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें,
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूँ।
मुझमें शायद थोड़ा-सा आकाश कहीं पर होगा,
मैं जो घर के खिड़की रोशनदान बचा पाया हूँ।
इसकी कीमत क्या समझेंगे ये सब दुनिया वाले,
अपने भीतर मैं जो इक इंसान बचा पाया हूँ

Thursday, 13 December 2012

दरोगा जी


हाए हाए!
दरोगा जी
कुछ समझ नहीं पाए!

आश्चर्य में जकड़े गए,
जब सिपाही ने
उन्हें बताया—
रामस्वरूप ने चोरी की
फलस्वरूप पकड़े गए।

दरोगा जी बोले—
ये क्या रगड़ा है?
रामस्वरूप ने चोरी की
तो भला
बिना बात फलस्वरूप को
क्यों पकड़ा है?
सिपाही
बार-बार दोहराए—
रामस्वरूप ने चोरी की
फलस्वरूप पकड़े गए।
पकड़े गए जी पकड़े गए
पकड़े गए जी पकड़े गए!

दरोगा भी लगातार
उस पर अकड़े गए।

दृश्य देखकर
मैं अचंभित हो गया,
लापरवाही के
अपराध में
भाषा-ज्ञानी सिपाही
निलंबित हो गया।

Ashok Chakradhar

कफन ओढ़ के फुटपाथ पे सो जाता हूँ


अब में राशन की कतारों में नज़र आता हूँ
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ

इतनी महंगाई है के बाज़ार से कुछ लाता हूँ
अपने बच्चों में उसे बाँट के शरमाता हूँ

अपनी नींदों का लहू पोंछने की कोशिश में
जागते जागते थक जाता हूँ, सो जाता हूँ

कोई चादर समझ के खींच न ले फिर से 'ख़लील'
मैं कफन ओढ़ के फुटपाथ पे सो जाता हूँ


ख़लील धनतेजवी

Saturday, 8 December 2012

અભરખા ઉતારો.


આ તડકાને બીજે ગમે ત્યાં ઉતારો,
નહીં ’તો હરણને ન રણમાં ઉતારો.

હું મંદિરમાં આવ્યો અને દ્વાર બોલ્યું,
પગરખાં નહીં બસ અભરખા ઉતારો.

તમારી નજર મેં ઉતારી લીધી છે,
તમે મારા પરથી નજર ના ઉતારો.

આ પર્વતના માથે છે ઝરણાનાં બેડાં,
જરા સાચવી એને હેઠાં ઉતારો.

ફૂલો માંદગીનાં બિછાને પડ્યાં છે,
બગીચામાં થોડાક ભમરા ઉતારો.

ભીતરમાં જ જોવાની આદત પડી ગઈ,
હવે ભીંત પરથી અરીસા ઉતારો.

~ગૌરાંગ ઠાકર

आदमी


चांद पर जो चढ़ गया वह भी आदमी।
भूख से जो मर गया वह भी आदमी॥
    आदमी को नमन करे आदमी की भीड़,
    वह कैसा आदमी जो खोज रहा नीड़ ?
    गजरों के बीच में खड़ा है आदमी।
    फूलों को सींचते पड़ा है आदमी॥
आदमी ने दुनिया का ढंग बदल दिया,
वह भी कैसा आदमी जो रंग बदल दिया ?
भवन को बनाता है वह भी आदमी।
भवन को जलाता है वह भी आदमी॥
    आदमी पसीने से सागर भी दे गया,
    वह भी कैसा आदमी जो लहर में गया ?
    डूबा रंगरलियों में वह भी आदमी।
    मांग रहा गलियों में वह भी आदमी॥
आदमी बनो करो कुछ आदमी के काम,
लिख न पायेगा नहीं तो आदमी में नाम ?
बेटा भी भूल गया वह भी आदमी।
जग न जिसे भूलेगा वह भी आदमी॥

आचार्य सरोज द्विवेदी

मैंने देखा है



मैंने देखा है,
लोगों को प्यार करते
नादाने दिल को फुशलाकर
इश्क के इजहार करते
कभी हँसी को समेट मुट्ठी में
नादान कलियाँ खिल जाती
कहीं गम के अँधेरे साए में
डूबकर फुल झर जाते
दिल टूटना तो आम बात है
इंसान को मिट्टी बन देखा है
ढेर हो जाते
बेचकर अपना जमीर
अपना स्वाभिमान
जिस्म का सौदा करते लोग
मैंने देखा है, उन्हे भी प्यार करते
नादाने दिल को फुशलाकर
इश्क के इजहार करते
——-
घंटो घुम्म्कड़ी से घूमते प्रेमी
गहरे नींद में तकिये को चुमते प्रेमी
बनाकर ख्वाबों का पुलाव
छानकर रस की मलाई
अमृत का स्वाद चखते प्रेमी
देखा है, उन्हें भी
समय को नष्ट करते
बाप की कमाई और माँ की मज़बूरी
को धुंधलाकर ऐश करते
नादाने दिल को फुशलाकर
इश्क के इजहार करते
मैंने देखा है,
लोगों को प्यार करते
——-
सच -झूटलाकर मन बहलाकर
दिल की ही सुनते हैं ये
भरे महफ़िल में लाखों की भीड़ है
जनाब तन्हा से रहते हैं ये
कभी पन्नो पर चुभोकर कलम
एक ही दिशाओ में गोल-गोल
कभी रातों के गहरे अंधेर में
उल्लू की भातीं आँखे खोल
भगवान जाने क्या करते हैं ये
मैंने देखा हैं, इन्हें भी
नींद में…….!
प्यार का पाठ पढ़ते
भोग की रासलीला रचते
नादाने दिल को फुशलाकर
इश्क के इजहार करते
मैंने देखा है,
लोगों को प्यार करते
——-
सुरक्षात्मक प्रमेय अपनाकर
इश्क से तौबा करते लोग
खिंचकर रेखा सीमावाली
माप-तौल के चलते लोग
देखकर मुरब्बा हुस्न का
दिल ही दिल ये ललचाते है
चखने का तो दिल करता…पर!
बंधन से ये घबराते हैं
मैंने देखा हैं, इन्हें भी
खोकर गहरे खाई में
हाथों से बाण चलाते
केवल छन भर में उब जाते
नादाने दिल को फुशलाकर
इश्क के इजहार करते
मैंने देखा है,
लोगों को प्यार करते

Author Unknown

बेटियां


माँ -बाप का साथ हर पल निभाती है बेटियां,
माँ -बाप का साथ हर पल निभाती है बेटियां,
घर मै खुशाली हर पल लाती है बेटियां,
तमाम परेशानिया झेल कर खुश रहती है बेटियां,
घर मै उजाला न हो अगर न हो बेटियां,
रौनक घरो की हर पल बड़ती है बेटियां,
वो घर नहीं वीराना है,जिसमें न हो बेटियां,
नसीब भी बुलंद होते है उनके, होती है जिनकी बेटियां,
कह-कहों से हर पल गूंजता है आशियाना,
खामोशियों को दूर भगाती है बेटियां,
माँ-बाप की सारी खुशियाँ छीन जाती है ऐ “इन्सान ”
रुखसत जिस रोज़ घर से होती है बेटियां!!!

Monday, 3 December 2012

Gumrah (1963) - Chalo Ek Baar Phir Se

Gumrah (1963) - Chalo Ek Baar Phir Se


आज के दिन अनोखी हुई थी बात कोई,
मैं ने खुद को ही खुद से दी थी सौगात कोई,
जिस तरह कोई मुस्कुराये आईने में देख अक्स अपना .
मैं मुस्कुरायी अपनी गोदी में देख कर उसको ,
कहाँ गयी चुभन सुई की , ज़ख्म नश्तर का,
मैं गयी भूल भयानक वो दर्द का मंज़र,
नर्म ,नाज़ुक, गुनगुने होठों की वो पहली छुअन,
यकीन तब कहीं आया कि अब मैं एक माँ हूँ,
मेरी जुही की कली, वो मेरी मासूम परी,
उसी की शक्ल में लगता है, हाँ मैं जिंदा हूँ…

sinsera

Monday, 26 November 2012

जीवन की ओर.

भूलने, छोड़ने की दुनिया में

सिर्फ़ देने और सहने के जज़्बे में

क्योंकि सुनना, सहना, देना और भूलना ही

प्रेम की परिभाषा है

इसीलिए प्रेम कभी मरता नहीं

मरते हैं शरीर

ज़िंदा रहते हैं, रखते हैं अहसास

प्रेम और अहसास का नाम ही

जीवन है

और जीवन तभी चलता है

आओ

फिर एक बार चलें

जीवन की ओर....!!!
-unkwn

सर ना झुकाया मैंने


बावजूद इसके तेरा साथ निभाया मैंने
तू फटा नोट था पुरे में चलाया मैंने

उम्र भर कोई मददगार मयसर ना हुआ
अपनी पहचान का खुद बोझ उठाया मैंने

तुझसे शर्मिंदा हूँ दो वक़्त की रोटी के लिए
...ज़िन्दगी तुझको बहुत नाच नचाया मैंने

अब तो कतरे भी समझने लगे खुद को दरिया
मैं समंदर था किसी को ना बताया मैंने

पांव में बांध ली जंजीर ख़ुशी से लेकिन
ताज रखने के लिए सर ना झुकाया मैंने ...........

Saturday, 24 November 2012

सच्चा प्यार


मैं सुनाने जा रहा हूँ,
आपको एक कहानी मज़ेदार !
एक पति-पत्नी में था बहुत प्यार !
कभी वे लड़ते,
कभी वे झगड़ते,
कभी मान-मनुवल करते,
फिर भी आपस में करते थे
वे सच्चा प्यार !

एक दिन अचानक किसी बात पर
दोनों के बीच हो गयी तकरार !
एक दूसरे की बात गुजरी
दोनों को नागवार !
उन के बीच बोलचाल हो गयी बंद !
दोनों ही अपने को समझते थे
ज्यादा अकलमंद !
समय बीतता गया परन्तु
दोनों अपनी जिद पर अड़े रहे,
पहले कौन बोले यही सोच कर
चुप पड़े रहे !

इस तरह से दोनों को बिना
एक दूसरे से बात किये
बीत गए सात साल !
आप कहेंगे कि इसमें क्या है
मज़ेदार बात !
यह तो है घर घर का हाल !
परन्तु यह सुनकर
हैरान हो जायेंगे आप !
सात साल तक दोनों की
बोलचाल रही बंद !
मगर वे करते थे
एक दूसरे से सच्चा प्यार !

इस चुप्पा-चुप्पी में
बिना एक दूसरे से बोले
सात सालों में वे दोनों
बन गए तीन बच्चों
के माँ-बाप !



 राम कृष्ण खुराना 

ठीक है बेटा फिर मत आना


ठीक है बेटा
मत आना लौटकर तुम अपने घर
जहां तुम्‍हारी मूर्ख माँ की
आँखें पथरा गयी है
राह तकते-तकते
सून भी नहीं सकती
कहता हूँ बेटा आने से मना करता है
फिर भी आस लगायी
राहों को तकती है
जैसे तकती राहें तुम तक पहुंचती हों
अब कौन समझाए तुम्‍हारी माँ को
बेटे का भी अपना घर-परिवार है
परिवार में अब कहाँ है
हमारी जगह
नहीं समझ पाती है तुम्‍हारी
पुरानी ख्‍यालातों वाली माँ
सुनती नहीं है सिर्फ कहती है
नजर नहीं आते हमारे आँसू
अब कौन समझाए उसे बेटा
आँखों से टपके आँसू
नहीं भीगा सकते
तुम तक पहुंचने वाली राहों को
इस बार और शायद
आखिरी बार
लौट आओ बेटा
भेंट हो जाएगी
फिर आने की जरूरत
तुम्‍हें नहीं पड़ेगी
हम ले रहे है साथ खाने में
धीमी जहर
वक्‍त लगता है खत्‍म करने में
जहर तो है पर है धीमा
अनुमानत तुमसे यह मुलाकात
आखिरी ही हो
ठीक है बेटा
फिर मत आना !

राजीव आनंद

परिवार

दाम्‍पत्‍य में सब कुछ
साझा है
सुख आधा है तो
दुख भी आधा है
इतना समझ जाने पर
पारिवारिक जीवन
बिल्‍कुल सीधा-साधा है


भ्रष्‍टाचार खत्‍म हो जावेगा

भ्रष्‍टाचार को उजागर करने
का यह मौजूदा दौर
धरना और नारेबाजी का
यह रोज-रोज का शोर
जब थम जावेगा
तो क्‍या भ्रष्‍टाचार
खत्‍म हो जावेगा ?

मध्‍यवर्गीय लोग

इनकी बस इतनी सी कहानी है
न चादर कभी लंबी कर पाए
न पैरों को सिकोड़ पाए
जीवन इसी खींचातानी में बीत जाए

राजीव आनंद


आगे पढ़ें: रचनाकार: राजीव आनंद की कविताएँ - नफ़ा-नुक़सान http://www.rachanakar.org/2012/11/blog-post_5352.html#ixzz2D9yusMv1

ज़िन्दगी


ज़िन्दगी हमदर्द नहीं
आतताई है,
मैंने तो हर जगह
मात खायी है ।
कहाँ तक साथ दे
कोई किसका,
रिश्तों को सुविधा ही
रास आयी है ।
हैरान हूँ,
अपनी ज़िन्दगी से मिलकर,
बहारों का मौसम है
या ख़िजा आयी है ।


 सतीश चन्द्र श्रीवास्तव

चूहे


चूहे सेठों के गोदामों
कूदते है
चूहे ग़रीबों के पेट में
कूदते है
चूहे बाज़ारों से निकल कर
आम आदमी की जेब
कुतर रहे है
खाकी वर्दी में चूहे
देश कॊ लूट रहे है
चूहे सफेद टोपी में
संविधान कुतर रहे हैं


 सतीश चन्द्र श्रीवास्तव

सतीश चन्द्र श्रीवास्तव की क्षणिकाएँ


मुझे ख़ाक समझ कर
उड़ा न देना
पड गया आँख में
तो मुश्किल होगी

2.
दवा न दे सको
तो दर्द ही दे देना,
सुना है
दर्द में दर्द दवा होती है


 सतीश चन्द्र श्रीवास्तव 

Friday, 23 November 2012

मी जेव्हा मरून जाईन


मी जेव्हा  मरून जाईन तेव्हा मला जाळू नका
आयुष्य भर जळत होतो, आणखी चटके देऊ नका

जेव्हा माझा अंत होईल तेव्हा तुम्ही रडु नका
जन्म भर मी रडत होतो, आणखी रडणे ऐकवू  नका

माझ्या मृतदेहावर नवीन कपडा घालू नका
आयुष्यभर बेअब्रू केले, आता झाकायचे सोंग करू नका

माझ्या  देहाचे ओझे खांद्या वरून न्हेवू नका
आयुष्याचे ओझे मीच माझे वाहिले उपकाराचे ओझे देऊ नका

माझ्या निस्प्रण देह वर कोणी फुले वाहू नका
माझ्या वेदनेचा गंध फुलांच्या वसत लपवू नका

माझ्या देहाच्या मातीला शेवटी नमस्कार करू नका
आयुष्यभर पाया खाली तुडवले, आता पाया पडू नका.


Author Unknown

डोक्यातच जातो


आजकाल तो जरा जास्तच शाईन मारतो
माझ्या ना हल्ली तो जरा डोक्यातच जातो
माझ्या सगळ्या मैत्रीणींशी तो नकळत मैत्री करतो
आणी काही दिवसांनी चक्क तिला प्रपोजच करतो
असे का वागतो हे मला समजतच नाही
त्याला काय समजावु हेच मला कळतच नाही
गर्लफ्रेंडला भेटायला गेलो की तोही तिथे अचानक टपकतो
अन मग आम्हा दोघांना तो पुरते पकवतो
हॉटेलात घेऊन जाऊन तो चांगली ऑर्डर देतो
आणी मग आलोच पैसे काढुन बोलुन तिकडुन चक्क सटकतो
थोडा एकांत हवा असतो आम्हाला का त्याला हे समजत नाही
आणी मग माझ्या प्रेयसीचे अश्रु माझ्याने मात्र बघवत नाहीत

तो निघाला तिथुन की मग ति माझ्यावर मनसोक्त रागवते
कधीकधी तर तिथुन चक्क निघुनच जाते
ह्या सा-या प्रकाराला मला जबाबदार धरले जाते
आणी मग तिला हसवता हसवता माझ्याच डोळ्यांत पाणी येते
सारं काही कळते तरीही तो असा का वागतो
माहीत नाही का पण तो हल्ली माझ्या डोक्यातच जातो

I Love You


म्हणून तर बघा - I LOVE YOU ...
कोणाच्या तरी येण्याने आयुष्यच कधी कधी बदलून जातं
आपलं सारं जगच त्यांच्याभोवती फिरू लागतं
जिवंत राहणं आणि एक एक क्षण जगणं
यातला फरक समजू लागतो
नाही नाही म्हणता आपणही
प्रेमात पडू लागतो

कधी हसणं विसरून गेलो तर
ते हसायला शिकवतात
जीवन हे खऱ्या अर्थाने
जगायला शिकवतात

पण एक दिवस जेव्हा ते दूर निघून जातात....

आपलं आयुष्यच अर्थशून्य वाटू लागतं
त्यांच्या गोड आठवणींमधे वेडं मन झुरू लागतं

कारण प्रत्येकालाच गरज असते एका साथीदाराची,
प्रत्येक क्षणाला प्रीतीच्या रंगात रंगवण्यासाठी
त्याच्या गोड गुलाबी स्वप्नात हरवण्यासाठी

म्हणूनच ........
असेल जर कोणी असं खास तुमच्याजवळ
जाऊ देऊ नका त्यांना कधी दूर
एकदा जवळ घेऊन म्हणून तर बघा
" I LOVE YOU "

Thursday, 22 November 2012

लिख रहा हुं


मुजसे लिया गया जो ईन्तेक़ाम लिख रहा हुं
में अपने शहर का वो क़त्ल-ए-आम लिख रहा हुं

ये ईश्क, हुस्न, नज़र, दोस्ती, अदा, वफ़ा, सब
में हूं फरेबी, लफ्ज़ भी बदनाम लिख रहा हुं

आज़ान पढ रहा हूं में मंदिर की छत के उपर
मस्जिद के सायेमे में राम नाम लिख रहा हुं

ये ईश्को ग़म फिराको वस्लसे अलग भी सोचो
लो लिख रहा हूं में नया अंजाम लिख रहा हुं

ये कौनसी ईनायते है? कौन अज़मते है?
ने'मत बरस रही है में जाम लिख रहा हुं

हां अब कहीये फूलसे की तंज़ फरमाये वो
बेनाम जो लहर थी वो में आम लिख रहा हुं

होती नहीं हज़म जो वो ही ब्रेड ज़िन्दगी है
इस पर मैं मोहब्बतका फ्रूट-जाम लिख रहा हुं

इतनी मीठास-ए-हुस्न तो कोहराम ही मचा दे
तेरी अदा के पान में किमाम लिख रहा हुं

मेरी बिमारी जान लो के जानलेवा है पर
मां डर नहीं जाए सो में झुकाम लिख रहा हुं

आवाज़ मेरे एहल-ए-नबी की चमक रही है
उसको ग़ज़ल बनाके में गुलाम लिख रहा हुं

- © तोफानी त्रिपुटी

Wednesday, 21 November 2012

शर्माजी(कॉमेडी)

http://www.youtube.com/watch?v=sFQY-x1yOz0&feature=share

माणसं...


एकदा कधी चुकतात माणसं,
सारंच श्रेय हुकतात माणसं...
प्रेम करुन का प्रेम कधी मिळतं,
सावकाश हे शिकतात माणसं...
गंधासाठी दररोज कोवळ्या,
कितीक फुलांस विकतात माणसं
शतकानुशतके कुठलीशी आस,
जपून मनात थकतात माणसं...
जुनाट जखमा भरू लागल्या की,
नवीन सिगार फुकतात माणसं...
हरेक पाकळी गळुनिया जाते
अन अखेरीस सुकतात माणसं...
नको रे असं कडू बोलू 'शता'..
उगाचच किती दुखतात माणसं !!!

Tuesday, 20 November 2012

दर्द


बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता

सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता

मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता

वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता ~~~ Nida Fazli

log


क्या करें भ्रम से घिरे हैं  लोग ,
अपने साये से डरे हैं  लोग ।


माना कि यह है अन्धेरों का शहर,
पर यहां भी कुछ खरे हैं लोग।


लिप्त तेरे मेरे मैं  वे हैं सदा ,
स्वार्थ से भी कुछ परे हैं लोग ।


ढह गई दीवार जो थी रेत की ,
क्या पता कितने मरे हैं लोग ।


कर रहे हैं मिलावट प्रभु भोग मैं.
धर्म से क्यों यूं गिरे हैं लोग।


टिकट ले तत्काल दर्शन हो रहे ,
श्याम कैसे सिर फ़िरे हैं लोग॥



आगे पढ़ें: रचनाकार: श्याम गुप्त की ग़ज़ल http://www.rachanakar.org/2012/11/blog-post_8164.html#ixzz2CmuQtaeT

तिफ़्ली के ख़ाब

[तिफ़्ली के ख़ाब] - असरार-उल-हक़ 'मजाज़'

तिफ़्ली में आरज़ू थी किसी दिल में हम भी हों
इक रोज़ सोज़-ओ-साज़ की महफ़िल में हम भी हों

दिल हो असीर गेसू-ए-अंबर-सिरिश्त में
उलझे इन्हीं हसीन सलासिल में हम भी हों

छेड़ा है साज़ हज़रत-ए-सादी ने जिस जगह
उस बोस्ताँ के शोख़ अनादिल में हम भी हों

गाएँ तराने दोश-ए-सुरय्या पे रखके सर
तारों से छेड़ हो, मह-ए-कामिल में हम भी हों

आज़ाद होके कश-मकश-ए-इल्म से कभी
आशुफ़्तगान-ए-इश्क़ की मंज़िल में हम भी हों

दीवाना-वार हम भी फिरें कोह-ओ-दश्त में
दिल-दादगान-ए-शोला-ए-महमिल में हम भी हों

दिल को हो शाहज़ादी-ए-मक़सद की धुन लगी
हैराँ सुराग़-ए-जादा-ए-मंज़िल में हम भी हों

सहरा हो, ख़ार-ज़ार हो, वादी हो, आग हो
इक दिन इन्हीं महीब मनाज़िल में हम भी हों

दरया-ए-हश्र-ख़ेज़ की मौजों को चीरकर
कश्ती समेत दामन-ए-साहिल में हम भी हों

इक लश्कर-ए-अज़ीम हो मसरूफ़-ए-कारज़ार
लश्कर के पेश-पेश मुक़ाबिल में हम भी हों

चमके हमारे हाथ में भी तेग़-ए-आबदार
हंगाम-ए-जंग नर्ग़ा-ए-बातिल में हम भी हों

क़दमों पे जिन के ताज हैं इक़्लीम-ए-दह्र के
उन चंद कुश्तगान-ए-ग़म-ए-दिल में हम भी हों

[असरार-उल-हक़ 'मजाज़']

=============

tiflee = बचपन
xaab = सपना
soz = जलन, तड़प
saaz = musical instrument
aseer = बंदी
gesoo = सर के लम्बे बाल
ambar-sirisht = जिस की प्रकृति में सुगंध निहित हो
salaasil = ज़ंजीरें
Saadi = फ़ारसी भाषा के प्रसिद्ध कवि
bostaaN = उद्यान; शेख़ सादी की पुस्तक का नाम
anaadil = अंदलीब (बुलबुल) का बहुवचन
dosh = कंधा
surayya = सितारों का जमघट
mah e kaamil = पूर्णचंद
kashmakash = संघर्ष
ilm = विद्या
aashuftagaan e ishq = प्रेम में व्याकुल
deevaana-vaar = दीवानों की तरह
koh = पहाड़
dasht = मरुस्थल
mehmil = एक क़िस्म की डोली जो ऊँट पर बाँधते हैं; लैला महमिल में बैठकर सफ़र करती थी
dildaadagaan e shola e mehmil = जिन्हों ने महमिल के ज्वाले पर दिल दे दिया हो
shaahzaadi e maqsad = लक्ष्य की राजकुमारी
suraagh e jaada e manzil = मंज़िल के रास्ते की खोज
sehra = मरुस्थल
xaarzaar = जिस स्थान पर काँटे हों
vaadi = घाटी
maheeb = भयानक
manaazil = मंज़िल का बहुवचन
darya e hashr-xez = वह नदी जिस का प्रवाह प्रलय-दिवस उठाता हो, या जिस का प्रवाह प्रलय-दिवस की तरह हो
daaman e saahil = तट का किनारा
lashkar e azeem = महान सेना
masroof e kaarzaar = युद्ध में व्यस्त
pesh-pesh = आगे-आगे
muqaabil = आमने-सामने
tegh e aabdaar = चमकती हुई तलवार
hangaam e jang = युद्ध के समय
baatil = मिथ्या, असत्य
nargha e baatil me = बातिल के घेरे में
taaj = मुकुट
iqleem e dehr = युग/समय का देश/क्षेत्र
chand = कुछ
kushtagaan e gham e dil = हृदय के दुखों के मारे हुए

Monday, 19 November 2012

char lina


ઢળતી આ સંધ્યાએ કહી દઉં તને કૈક સાચું સાચું ?
મારું એક અધૂરું કાવ્ય ગણી, હું આજ તને વાંચું ?

ફરી ફરીને શબ્દો બની, ભરાઈ જાય છે મુજ મહી,
કેમ કરી હવે હું વારંવાર, તને મારામાંથી ઉલેચું ?
-Saket Dave...

जिया नहीं जाता


क्या कहू मै ? अब कुछ कहा नहीं जाता.
ये जीवन ! अब मुझसे जिया नहीं जाता.

गलती थी मेरी' या तकदीर ही ख़राब थी,
रास्ता गलत था, या चाहत ही गलत थी,
बेठा हु, थक हार कर दिल में तूफां लिए,
पाना, चाहता हु चाहत, पाया नहीं जाता.

चाहत भरी बातो को, सुनता हु मै अक्षर,
मेरी चाहत कहा है' वो ढूंढता हु मै अक्षर,
कोई है? जो मुझे मेरी चाहत से मिला दे,
चाहत है क्या ? उसको जाना नहीं जाता.

जिसको भी मैंने चाहा, मुह फेरकर गया,
एक दर्द भरा लम्हा दिलमें छोड़कर गया,
किस फेरमें डाला है, दुनिया बनाने वाले,
"बादल" का बोझ अब उठाया नहीं जाता.

-----------बादल ( बाबा देसाई )

જિંદગી તો પૂરી થવાની છે


છોડ,તારે જ ઓઢવાની છે
રાત ભાગીને ક્યાં જવાની છે

આગ ને દોષ ના લગારે દો
મૂળમાં ભૂલ આ હવાની છે

લાખ રસ્તા વિચારવા પડશે
એક બાબત છૂપાવવાની છે

એમણે તો ફરજ કહી નાખી
આપણે તો નિભાવવાની છે

કોઇ ઇચ્છા પૂરી ન હો કે હો
જિંદગી તો પૂરી થવાની છે

ઍક ચિંતા


ઍક ચિંતા કોરી ખાય છે મન મારુ,
કે તે મને યાદ કરતા હશે કે કેમ ?

ઍક લાગણી કોરી ખાય મન મારુ,
કે તેમનુ મન બેચેન હશે કે કેમ ?

ઍક વિચાર હૈરાન કરે છે રોજ મને,
કે તે મારી રાહ જોતા હશે કે કેમ ?

ઍક શ્વપ્ન ઉંઘવા મજબૂર કરે છે મને,
તેઓ પણ આમ ઉંઘતા હશે કે કેમ ?

ઍક ખુશી હ્રદય ધડકાવે છે મારુ'જાન'
કે હજુ હું ભૂલાવી નથી શક્યો તમને.

आसमान


आसमान खोलो 
इक और आसमान है 
इस जहाँ के पार 
एक और भी जहाँ है 

गुलज़ार 

Gazal

इश्क ने मारा नहीं तो खुद-ब -खुद मर जायेंगे !
हम तो पागल हे कभी भी ख़ुदकुशी कर जायेंगे !

जंगलो में तो जगा-ऐ-आसमा महेफुज़ हैं ,
इस शहर में गर उड़ोंगे हाथ से पर जायेंगे !

सूरत-ऐ-मजहब के बारे में भी होगी गुफ्तगू ,
क्या कहेंगे जब कभी अल्लाह के घर जायेंगे !

मैकदे में गर खुला छोड़ेंगे अपने आप को ,
ये मेरा दावा हैं की बन्दे सभी तर जायेंगे !

खंजरो से खेलने वाले ना आऐ बाग़ में ,
हे बहोत मुमकिन दीदार-ऐ-फुल से डर जायेंगे !

-इश 

Sunday, 18 November 2012

मौत मुस्कुराती नहीं है : अशोक चक्रधर की कविता


किसी की उम्र कम
किसी की लंबी है,
और मौत महास्वावलंबी है।
अपना निर्णय स्वयं लेगी,
तुम्हारे चिंता करने से
न तो आएगी
न आने से रुकेगी।
चिंता करके
स्वयं को मत सताओ,
मौत जब भी फोटो खींचना चाहे
मुस्कराओ।
रौनक आ जाती है फोटो में
तुम्हारी दो सैकिंड की मुस्कान से,
ज़िंदगी भर मुस्कुराओगे तो
कभी नहीं जाओगे जान से।

सुनो! तुम्हारे पैदा होते ही
तुम्हारी मौत भी पैदा हो जाती है।
ठीक उसी घड़ी उसी मुहूर्त
उसी लग्न उसी व़क्त
तुमसे कहीं ज़्यादा मज़बूत और सख़्त।
याद रखना मौत मुस्कराती नहीं है,
कोयल की बोली में गाती नहीं है।
वह तो चील-गिद्ध कउओं की तरह
सिर पर मंडराती है
हंसी उसे आती नहीं है।
दांत फाड़े जब वो तुम मुस्कुराओ,
और जब दहाड़े तुम गुनगुनाओ।

वृद्धावस्था तक
अपनी ताक़त खोने से
वो खोखली हो जाएगी,
उसके दांत बर्फ़ की तरह
पिघल जाएंगे
और वो पोपली हो जाएगी।

तुम फिर भी मुस्कुराते रहे
तो तुमसे बुरी तरह डर जाएगी,
तुम्हारी मौत तुम्हारे सामने ही
मर जाएगी।

Saturday, 17 November 2012

Jab tk hai jaan


Teri aankhon ki namkeen mastiyan
Teri hansi ki beparwahgustakhiyan
Teri zulfon ki leharaati angdaiyaan
Nahi bhoolunga main
Jab tk hai jaan
Jab tk hai jaan

Tera haath se haath chhodna
Tera saayon se rukh modna
Tera palat ke phir na dekhna
Nahin maaf karunga main
Jab tk hai jaan
jab tk hai jaan

Baarishon mein bedhadak terenaachne se
Baat baat pe bewajah tere roothnese
Chhoti chhoti teri bachkani
badmashiyon se
Mohabbat karunga main
Jab tk hai jaan
Jab tk hai jaan

Tere jhoothe kasme vaadon se
Tere jalte sulagte khwabon se
Teri bereham duaaon se
Nafrat karunga main
Jab tk hai jaan
jab tk hai jaan

जिन्दगी खुबसूरत है जी कर तो देखो


जिन्दगी खुबसूरत है जी कर तो देखो

बहुत सुना ली दर्द-ऐ दिल की दास्ताँ 
दिलकी खुशियाँ बाँट  कर तो देखो 
जिन्दगी  खुबसूरत है जी कर तो देखो 

बहुत पढ़ लिए पोथी और पुराण 
ढाई अक्षर प्रेम के  पढ़ कर तो देखो 
जिन्दगी खुबसूरत है जी कर तो देखो 

अपनों में बाटीं है सदा तुमने खुशियाँ 
गैरों को अपना बनाकर तो देखो 
जिन्दगी  खुबसूरत है जी कर तो देखो 

बहुत सहे लिए जिन्दगी के तनाव 
बच्चों के साथ बच्चे बन कर तो देखो 
जिन्दगी खुबसूरत है जी कर तो देखो 

चहेरे पे नकाबों का बोझ बढ़ चूका है 
चहेरे से नकाब हटा कर तो देखो 
जिन्दगी खुबसूरत है जी कर तो देखो 

गम को न दो ताकत तुम्हे दुखी करने की 
गम को हस कर गले लगा कर तो देखो 
जिन्दगी खुबसूरत है जी कर तो देखो 

खूबसूरती पे चहेरे की मरके  क्या होगा?
किसी के दिल की किताब पढ़ के तो देखो 
जिन्दगी खुबसूरत है जी कर तो देखो 

बहुत नाप ली धरती की लम्बाई और चौड़ाई 
आसमान में अब उड़ान लगा कर तो देखो 
जिन्दगी खुबसूरत है जी कर तो देखो 

मिल जाएगी तुम्हे हर मंजील जनाब 
हौसला बुलंद अपना करके तो देखो 
जिन्दगी खुबसूरत है जी कर तो देखो 

Wednesday, 14 November 2012

शुरू से खत्म..



सिमट गयी है दुनिया उसी में होकर,
उसी से शुरू उसी पे खत्म...
ना कोई आरजू है ना कोई तिजारा,
सुबह से शुरू रात में खत्म...
गुलशन भी गूंजा है भवरों से मिलकर,
फूलो से शुरू कांटो पे खत्म…
प्यार का खेल आसान नही है दोस्त,
दिल से शुरू दिल पे खत्म...
बातें हमारी उनसे यूं ही चलती हैं,
होंठो से शुरू होंठो पे खत्म...
चाहत ही बहुत है हमारी उनसे,
नजरों से शुरू नजरों पे खत्म...
गिले शिकवे भी नही रखते उनसे,
आज पे शुरू आज पे खत्म…
याद रखेगी दुनियां भी हमको,
सूरज से शुरू चाँद पे खत्म............शशिकांत चौधरी ‘सागर’

नैनों की भाषा


 मरूभूमि सी वीरान कभी,
कभी उपवन सी सुंदर दिखती है।
कल-कल बहता झरना कभी,
कभी चट्टानो सी तपती है।

कभी ममता की मूरत बन,
ये प्रेम सुधा बरसाती है।
इसके आँचल की छाव तले,
धरती स्वर्ग बन जाती है।

मूक भी खाशी का रूप धर,
हर बात बयाँ कर जाती है।
बिन कहे एक भी शब्द,
मन की मनसा दर्शाती है।

जब रुद्रा रूप धारण करती,
ये अग्नि कुंड बन जाती है।
दुश्मन पर तीखे वार कर,
ये महाकाल कहलाती है।

कभी प्रेम रस की वाणी बन,
मधुर मिलन करवाती है।
इज़हार मोहब्बत कर देती,
जब जूबां शिथिल पड़ जाती है।

कभी लज्जा की चादर ओढ़े,
ये मंद मंद मुस्काती है।
कुंदन की काया धरी रहे,
जब शर्म से ये झुक जाती है।

यहाँ भाषाओं की भीड़ है,
हर मोड़ पे बदल जाती है।
हम प्रेम सूत्र मे बँधे है,
क्योकि नैनो की भाषा होती है।
                डॉक्टर राजीव श्रीवास्तवा

Tuesday, 13 November 2012

मरीज नो शेर

તારું છે એવું કોણ કે માગે સ્વતંત્રતા !
મારું છે એવુ કોણ જે બંધન બની જશે ?

MARIZ

तत्व साऱ्या जीवनाचे

दोस्तहो, ह्या जीवलागांनी दूर जेव्हा लोटले 
त्याच वेळी दश दिशांनी बहुत मजला घेतले 

सांगतो ती 'पूर्व' ऐसे पुत्र बोलू लागले 
'सूर्य' आणि 'पूर्व' यांचे नाते विरून गेले 

त्याच वेळी 'पश्चिमे' चे दूत आले स्वागता 
ध्यानात आले, जीवनाची झाली आता सांगता 

चेक कैसा मी लिहावा. हात कापे सारखा 
माझी च का हि स्वाक्षरी, हा प्रश्न पडला सारखा 
आतुरता होई मुलांना, ह्याच, त्या एका क्षणाची 
घेतली काढून त्यांनी . खाते वही संचिताची 
त्यांचे कृपेने लाभेल जैसी, ती च झाली दक्षिणा 
बोलली 'दक्षिण' तेव्हा, येवू कैसे रक्षणा 

प्रश्न पुसता प्रेमभावे, मिळती कटू प्रतृतरे 
'उत्तरेचा' अर्थ म्हणजे निरुतरे आणि दुरूत्तरे

कैसा त्यांना मी विचारू जाब ह्या वर्तानाचा 
त्यांच्याच हाती प्रश्न माझा दोन प्रहरी जेवणाचा 
'आग्नेय' राही दूरवरती, जाथाराटला अग्नी खरा 
अर्थ ह्या मधल्या दिशेला, वृधापाकली कळला खरा 

'वायव्य' मजला कानात संगे, तत्व साऱ्या जीवनाचे 
'व्यय' कशाला व्यर्थ करशी, 'ईशान्य' दिशी जायचे 
'ईश' म्हणता नजर माझी 'ऊर्ध्व' आकाशास गेली 
ऋतू तुझे संपून गेले, 'नैरुत्य' हि उदगारली 

येई वत्सा, ये फिरुनी, शब्द  हे कोठुनी आले
नऊ दिशांना पाहता मी, तोंड त्यांनी फिरविले 
दिशा दहावी स्मशानभूमी,कुशीत घेण्या  सज्ज होती
जन्मांतरीची माय माझी , आर्त हाक देत होती.

वा.वा.  पाटणकर 

हाइकु ; -मदनमोहन उपेंद्र

नभ की पर्त
चीर गई चिड़िया
देखा साहस। -मदनमोहन उपेंद्र

सांग तू माझी होशील का?



सांग तू माझी होशील का?
माझी होऊन माझ्यावरती
प्रेमवर्षा करशील का?
सांग तू माझी होशील का?

मला दीसणार्या स्वप्नातली
स्वप्नसुंदरी तू होशील का?

पहाटेस माझ्यावर पडणारे
प्रथम सूर्यकिरण तू होशील का?

सप्तसूरात तू गात असताना
होईन तुझा स्वर मी,
अश्रू तुझे पुसणारा
रेशमी रुमाल होईन मी,
आनंदात तुझ्या ओठावरचे स्मित होईन मी,
दुःखात तुझ्या जखमांवर मलम लाविन मी,
आयुष्यभर पुरणारा तुझा खरा मित्र होईन मी,
एकांतात तुझा मनाचा विरंगुळा होईन मी,

पण सांग न एकदा तू
माझ्या मनाची राणी
खरच तू माझी होशील का?

तुषार खेर

प्रेम म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम असतं




प्रेम म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम असतं
पण आपले एक मेकान वरचे प्रेम same नसतं

बापाचे ही स्वतःच्या मुला वर प्रेम असतं
पण  आईचे मुला वरचे प्रेम हे श्रेष्ठ असतं

भावाचे ही त्याच्या बहिणी वर प्रेम असतं
पण ताईचे लहान भावावरचे प्रेम और च असतं

तसे तर आपले सर्व मित्र / मैत्रिणी वर प्रेम असतं
पण गर्ल फ्रेंड /बॉय फ्रेंड वर वेगळ च प्रेम असतं

नवरा आणि बयकों ह्यांचे एक मेकांवर प्रेम असतं
पण प्रथम व्यक्त केलेले प्रेम आठवणीतलं  असतं

माणसाने माणूस जाती वर कलेले प्रेम हे उत्तम असतं
पण देवाचे आपल्या सर्वांवर असलेले प्रेम सर्वोत्तम असतं

तुषार खेर

नव्याने


नव्याने

RUSHIKESH's picture
अता रान हे पेटवूया नव्याने
चला देश हा सावरूया नव्याने
जिथे राम आणी रहिम एक आहे
अशी तिर्थयात्रा करूया नव्याने
जगी सर्व जातीत सामावला जो
अशा इश्वराला स्मरूया नव्याने
तुझ्या वाटण्या, रे नको मायदेशा
कुठेही अता वावरूया नव्याने
कुठेही वहा, पण तरी गंध देते
फुलासारखे दरवळूया नव्याने
कुणा पाहिजे भांडणे रोजची ही ?
इथे प्रेमही वाढवूया नव्याने !
अता एक होऊ, अता एक राहू
उठा बांधवांनो जगूया नव्याने !!!

Monday, 12 November 2012

તું મૈત્રી છે


તું વૃક્ષનો છાંયો છે, નદીનું જળ છે.
ઊઘડતા આકાશનો ઉજાસ છે:
                                         તું મૈત્રી છે.
તું થાક્યાનો વિસામો છે, રઝળપાટનો આનંદ છે
તું પ્રવાસ છે, સહવાસ છે:
                                         તું મૈત્રી છે.
તું એકની એક વાત છે, દિવસ ને રાત છે
કાયમી સંગાથ છે:
                                         તું મૈત્રી છે.
હું થાકું ત્યારે તારી પાસે આવું છું,
હું છલકાઉં ત્યારે તને ગાઉં છું,
હું તને ચાહું છું :
                                         તું મૈત્રી છે.
તું વિરહમાં પત્ર છે, મિલનમાં છત્ર છે
તું અહીં અને સર્વત્ર છે:
                                         તું મૈત્રી છે.
તું બુદ્ધનું સ્મિત છે, તું મીરાનું ગીત છે
તું પુરાતન તોયે નૂતન અને નિત છે:
                                         તું મૈત્રી છે.
તું સ્થળમાં છે, તું પળમાં છે;
તું સકળમાં છે અને તું અકળ છે:
                                         તું મૈત્રી છે.
- સુરેશ દલાલ

જીવન બની જશે


જીવન બની જશે

જ્યારે કલા, કલા નહીં, જીવન બની જશે,
મારું કવન જગતનું નિવેદન બની જશે .
શબ્દોથી પર જો દિલનું નિવેદન બની જશે,
તું પોતે તારા દર્દનું વર્ણન બની જશે .
જે કંઈ હું મેળવીશ હમેશા નહીં રહે ,
જે કંઈ તું આપશે તે સનાતન બની જશે.
મીઠા તમારા પ્રેમના પત્રો સમય જતાં,
ન્હોતી ખબર કે દર્દનું વાચન બની જશે.
તારો સમય કે નામ છે જેનું ફકત સમય,
એને જો હું વિતાવું તો જીવન બની જશે .
તારું છે એવું કોણ કે માગે સ્વતંત્રતા !
મારું છે એવુ કોણ જે બંધન બની જશે ?
આંખો મીંચીને ચાલશું અંધકારમાં ‘મરીઝ’
શંકા વધી જશે તો સમર્થન બની જશે .
- ‘મરીઝ’

झुकवली ती मान मी, जी ताठ होती


झुकवली ती मान मी, जी ताठ होती

शुभानन चिंचकर's picture
झुकवली ती मान मी, जी ताठ होती
हाय, माझ्याशीच अंती गाठ होती
मी कुठे पुसले, मला का टाळले तू?
कारणे सारी मला ती पाठ होती
केवढी दूरी तुझ्यामाझ्यात होती
नाव मी बुडतीच अन तू काठ होती
केवढी तू शूर अन दिलदार होती
घाव जेथे घातले ती पाठ होती
'अरुण' नाही खंत त्या ताटातुटीची
माहिती होतेच, ती निरगाठ होती!

मेरे हाइकु


1.

मन लाचार 
मोह माया का जाल 
मोक्ष दुश्वार 

2.

चलते रहो 
आगे बढ़ते रहो 
मंजिल पाओ 


हौसला रख 
हिम्मत मत हार 
राहें कठिन 

4.

लढता  रहा 
आखरी दम तक 
जीने के लिये 

Sunday, 11 November 2012

हाइकु: मेरा प्रयत्न

मन उदास
पिया का मिले साथ
फिर खिलेगा

हाइकु : डॉ. जगदीश व्योम

छिड़ा जो युद्ध
रोएगी मनुजता
हँसेंगे गिद्ध।

निगल गई
सदियों का सृजन
पल में धरा।

चार हाइकु ; अल्पना वर्मा


वो संग दिल,
बहुत है खामोशी,
बहते आंसू .

नैनों की बातें,
कंपकंपाता मन ,
हुआ मिलन.

महकी हवा,
आँगन कागा बोले
आया पाहुन.

गिरता पारा,
अधढका बदन ,
सुबह मौन!

-अल्पना वर्मा 

हाइकु ; परस दासोत

है जवान तू
भगीरथ भी है तू
चल ला गंगा।

 -पारस दासोत

हाइकु ; कमल ; कमलेश भट्ट

कौन मानेगा
सबसे कठिन है
सरल होना।

फूल सी पली
ससुराल में बहू
फूस सी जली।

तोड़ देता है
झूठ के पहाड़ को
राई-सा सच। -

'Kamal' :  Kamlesh Bhatt