Tuesday, 20 November 2012

log


क्या करें भ्रम से घिरे हैं  लोग ,
अपने साये से डरे हैं  लोग ।


माना कि यह है अन्धेरों का शहर,
पर यहां भी कुछ खरे हैं लोग।


लिप्त तेरे मेरे मैं  वे हैं सदा ,
स्वार्थ से भी कुछ परे हैं लोग ।


ढह गई दीवार जो थी रेत की ,
क्या पता कितने मरे हैं लोग ।


कर रहे हैं मिलावट प्रभु भोग मैं.
धर्म से क्यों यूं गिरे हैं लोग।


टिकट ले तत्काल दर्शन हो रहे ,
श्याम कैसे सिर फ़िरे हैं लोग॥



आगे पढ़ें: रचनाकार: श्याम गुप्त की ग़ज़ल http://www.rachanakar.org/2012/11/blog-post_8164.html#ixzz2CmuQtaeT

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