क्या करें भ्रम से घिरे हैं लोग ,
अपने साये से डरे हैं लोग ।
माना कि यह है अन्धेरों का शहर,
पर यहां भी कुछ खरे हैं लोग।
लिप्त तेरे मेरे मैं वे हैं सदा ,
स्वार्थ से भी कुछ परे हैं लोग ।
ढह गई दीवार जो थी रेत की ,
क्या पता कितने मरे हैं लोग ।
कर रहे हैं मिलावट प्रभु भोग मैं.
धर्म से क्यों यूं गिरे हैं लोग।
टिकट ले तत्काल दर्शन हो रहे ,
श्याम कैसे सिर फ़िरे हैं लोग॥
आगे पढ़ें: रचनाकार: श्याम गुप्त की ग़ज़ल http://www.rachanakar.org/2012/11/blog-post_8164.html#ixzz2CmuQtaeT
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