Tuesday, 19 February 2013

'महरूम'


होते है जो कमल-से.     
डरते  नहीँ दलदल  से.     
अब जलजले भी देखेँ      
देखे हैँ खूब जलसे.     
तस्वीर ज़्यादा बिगड़ी        
है रद्द-ओ-बदल से.     
अन्याय जन्म लेते                
हैँ न्याय के महल से.      
कुछ बात तब बने जब
बदलाव करेँ तल से.       
होती है सबल सत्ता    
निर्बलोँ के ही बल से.           

लेते नहीँ सबक हम    
तारीख़ की मसल से.       
ख़ुश लोक, तंत्र भी खुश       
आँकड़ोँ की फ़सल से.       
बहते हैँ अश्के-ख़ूं अब       
मेरी चश्म-ए-ग़ज़ल से. 
ज़ारी है ज़ंग 'महरूम'      
हर ज़ुल्म सितम छल से. 


आगे पढ़ें: रचनाकार: देवेन्द्र पाठक 'महरूम' की दो ग़ज़लेँ http://www.rachanakar.org/2013/02/blog-post_3638.html#ixzz2LMhzh5KI

दूर से


कॉच हूं अब डर सताता है मुझे,
जब कोई पत्‍थर उठाता दूर से॥
बेशक मुझे क्‍यूं शक ये होने लगा,
यूं कोई जब मुस्‍कराता दूर से॥
अब तो रिश्तों से भरोसा उठ गया,
दोस्‍त भी बाहें हिलाता दूर से॥
हर किसी के चोर दिल में है छुपा,
सच कोई न बोल पाता दूर से॥
अब किसे मिलने की भी फुर्सत यहॉ,
हर कोई रिस्‍ते निभाता दूर से॥
हम गलत हैं या जमाना है बुरा,
हर कोई बातें सुनाता दूर से॥
--

उमेश मौर्य


आगे पढ़ें: रचनाकार: उमेश मौर्य की कविताएँ और ग़ज़लें http://www.rachanakar.org/2013/02/blog-post_8129.html#ixzz2LMhjoaF7