होते है जो कमल-से.
डरते नहीँ दलदल से.
डरते नहीँ दलदल से.
अब जलजले भी देखेँ
देखे हैँ खूब जलसे.
देखे हैँ खूब जलसे.
तस्वीर ज़्यादा बिगड़ी
है रद्द-ओ-बदल से.
है रद्द-ओ-बदल से.
अन्याय जन्म लेते
हैँ न्याय के महल से.
हैँ न्याय के महल से.
कुछ बात तब बने जब
बदलाव करेँ तल से.
बदलाव करेँ तल से.
होती है सबल सत्ता
निर्बलोँ के ही बल से.
निर्बलोँ के ही बल से.
लेते नहीँ सबक हम
तारीख़ की मसल से.
ख़ुश लोक, तंत्र भी खुश
आँकड़ोँ की फ़सल से.
आँकड़ोँ की फ़सल से.
बहते हैँ अश्के-ख़ूं अब
मेरी चश्म-ए-ग़ज़ल से.
मेरी चश्म-ए-ग़ज़ल से.
ज़ारी है ज़ंग 'महरूम'
हर ज़ुल्म सितम छल से.
हर ज़ुल्म सितम छल से.
आगे पढ़ें: रचनाकार: देवेन्द्र पाठक 'महरूम' की दो ग़ज़लेँ http://www.rachanakar.org/2013/02/blog-post_3638.html#ixzz2LMhzh5KI